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आमेर। रोहन शर्मा। शिला देवी मंदिर भारत के राजस्थान राज्य के जयपुर नगर में आमेर महल में स्थित एक मंदिर है। इसकी स्थापना यहां सवाई मानसिंह द्वितीय द्वारा की गयी थी।,प्रथम स्थानीय लोगों से मिली सूचनानुसार शिला देवी जयपुर के कछवाहा राजपूत राजाओं की कुल देवी रही हैं। द्वितीय, इस मंदिर में लक्खी मेला लगता है जो काफी प्रसिद्ध है। इस मेले में नवरात्र में यहां भक्तों की भारी भीड माता के दर्शनों के लिए आती है। शिला देवी की मूर्ति के पास में भगवान गणेश और मीणाओं की कुलदेवी हिंगला की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। कहते हैं कि यहां पहले मीणाओं का राज हुआ करता था। नवरात्रों में यहाँ दो मेले लगते हैं एवं देवी को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती है। तृतीय आमेर दुर्ग के महल में जलेब चैक है जिसके दक्षिणी भाग में शिला माता का ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। ये शिला माता राजपरिवार की कुल देवी भी मानी जाती हैं। यह मंदिर जलेब चैक से दूसरे उच्च स्तर पर मौजूद है अत: यहां से कुछ सीढियाँ चढ कर मंदिर तक पहुंचना होता है। ये शिला देवी मूलत: अम्बा माता का ही रूप हैं एवं कहा जाता है कि आमेर या आंबेर का नाम इन्हीं अम्बा माता के नाम पर ही अम्बेर पडा था जो कालान्तर में आम्बेर या आमेर हो गया। माता की प्रतिमा एक शिला पर उत्कीर्ण होने के कारण इसे शिला देवी कहा जाता है।
मंदिर का भवन व वास्तुकला
वर्तमान में मंदिर सम्पूर्ण रूप से संगमरमर के पत्थरों द्वारा बना हुआ है, जो महाराज सवाई मानसिंह द्वितीय ने 1906 में करवाया था। मूल रूप में यह चूने का बना हुआ था। यहाँ प्रतिदिन भोग लगने के बाद ही मन्दिर के दरवाजे खुलते हैं जो परम्परा आज भी चली आ रही है। तथा यहाँ विशेष रूप से गुजियाँ व नारियल का प्रसाद चढाया जाता है। इस मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनों पर आरूढ भगवान गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु एवं कार्तिकेय की सुन्दर छोटे आकार की मूर्तियां बनी हैं। शिलादेवी की दाहिनी भुजाओं में खड्ग, चक्र, त्रिशूल, तीर तथा बाईं भुजाओं में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष उत्कीर्ण हैं।
सूत्रो के अनुसार बताया जाता है कि पहले यहां माता की मूर्ति पूर्व की ओर मुख किये हुए थी। जयपुर शहर की स्थापना किए जाने पर इसके निर्माण में कार्यों में अनेक विघ्न उत्पन्न होने लगे। तब राजा जयसिंह ने कई बडे पण्डितों से विचार विमर्श कर उनकी सलाह अनुसार मूर्ति को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवा दिया, जिससे जयपुर के निर्माण में कोई अन्य विघ्न उपस्थित न हो, क्योंकि मूर्ति की दृष्टि तिरछी पढ़ रही थी। तब इस मूर्ति को वर्तमान गर्भगृह में प्रतिष्ठित करवाया गया है, जो उत्तराभिमुखी है। यह मूर्ति काले पत्थर की बनी है और एक शिलाखण्ड पर बनी हुई है। शिला देवी की यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में बनी हुई है। सदैव वस्त्रों और लाल गुलाब के फूलों से ढंकी मूर्ति का केवल मुहँ व हाथ ही दिखाई देते है। मूर्ति में देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिनें हाथ के त्रिशूल से मार रही है। इसलिए देवी की गर्दन दाहिनी ओर झुकी हुई है। यह मूर्ति चमत्कारी मानी जाती है। शिला देवी की बायीं ओर कछवाहा राजाओं की कुलदेवी अष्टधातु की हिंगलाज माता की मूर्ति भी बनी हुई है। मान्यता अनुसार हिंगलाज माता की मूर्ति पहले राज कर रहे मीणाओं द्वारा बलूचिस्तान के हिंगलाज भवानी शक्तिपीठ मन्दिर से लायी गई है।
बताया जा रहा है कि मंदिर के प्रवेशद्वार पर चाँदी का पत्र मढ़ा हुआ है जिस दस महाविद्याओं, नवदुर्गा की आकृतियाँ अंकित हैं। मन्दिर का मुख्य द्वार चांदी का बना हुआ है और उस पर नवदुर्गा, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री की प्रतिमाएँ उकेरी हुई हैं। दस महाविद्याओं के रूप में यहां काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, श्रीमातंगी और कमला देवी को दर्शाया गया है। द्चार के ऊपर लाल पत्थर की भगवान गणेश की मूर्ति प्रतिष्ठित है। मुख्यद्वार के सामने झरोखे है जिसके अंदर चांदी का नगाडा रखा हुआ है। यह नगाडा प्रात: एवं सायंकाल आरती के समय बजाया जाता है। मन्दिर की तरफ प्रवेश करते ही दाईं ओर कलाकार धीरेन्द्र घोष द्वारा महाकाली और महालक्ष्मी की सुन्दर चित्रकारी की हुई है।
पशु बलि का प्रावधान
आज के इस देवी मंदिर धार्मिक इमारतों की प्राचीन वस्तुशिल्प शैली दिखाई देती है। यहां स्थापित शिला माता की प्रतिमा का चेहरा कुछ टेढा है। इस मंदिर में वर्ष 1980 तक तक पशु बलि का प्रावधान था, किन्तु आधुनिक समाज के, विशेषकर जैन धर्मावलंबियों के विरोध होने के कारण यह बंद कर दी गई। आने वाले भक्तों के लिए दर्शन की विशेष सुविधा का प्रबन्ध किया जाता है। मन्दिर की सुरक्षा का सारा प्रबन्ध पुलिस अधिकारियों द्वारा किया जाता है। भक्त पंक्ति में बारी-बारी से दर्शन करते है तथा भीड अधिक होने पर महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग पंक्तियां बनाकर दर्शन का प्रबन्ध किया जाता है। मुख्य मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है, जहाँ माँ के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता के अनुसार शिला माँ के दर्शन तभी सफल होते हैं, जब भक्त भैरव दर्शन करके लौटते हैं। इसका कारण है कि भैरव का वध करने पर उसने अन्तिम इच्छा में माँ से यह वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के उपरान्त मेरे दर्शन भी भक्त करें ताकि माँ के नाम के साथ भैरव का नाम भी लोग याद रखें और माँ ने भैरव की इस इच्छा को पूर्ण कर उसे यह आर्शीवाद प्रदान किया था।
शिला रुप में मिली तो कहलाई शिला देवी
कहा जाता है कि शिला माता की प्रतिमा एक शिला के रुप में मिली थी। 1580 ईस्वी में इस शिला को आम्बेर के शासक राजा मानसिंह प्रथम बंगाल के जसोर राज्य पर जीत के बाद वहां से इसे लेकर आम्बेर लेकर आए थे। यहां के प्रमुख शिल्प कलाकारों से महिषासुर मर्दन करती माता के रुप में उत्कीर्ण करवाया। इस बारे में जयपुर में एक कहावत भी बहुत प्रचलन में है, सांगानेर को सांगो बाबो जैपुर को हनुमान, आमेर की शिला देवी लायो राजा मान। इतिहास में शिला देवी प्रतिमा को लाने के संबंध में कई मत चलन में है, लेकिन इतिहासकारों की नजर में तीन मत ज्यादा ही प्रचलित है। एक मत यह है कि लडाई में हारने पर जसोर राज्य के राजा केदार ने अपनी पुत्री का विवाह राजा मानसिंह से किया था और दहेज में माता की प्रतिमा दी थी। दूसरा मत यह है कि राजा मानसिंह ने बंगाल के अधिकांश प्रांतों पर विजय हासिल कर ली, लेकिन राजा केदार को हरा नहीं पाए। जब राजा ने कैसे जीत मिले, इस बारे में पता किया तो यह सामने आया कि राजा के महल में काली माता का मंदिर है और माता के आशीर्वाद से कोई भी शत्रु राजा को युद्ध में हरा नहीं सकता। इस पर राजा मानसिंह ने माता को प्रसन्न करने के लिए पूजा की। माता ने प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन दिए, जिसमें अपने साथ ले चलने व अपनी राजधानी में मंदिर बनाने की बात कही। राजा ने वचन देकर राजा केदार के राज्य पर हमला करके उसे पराजित कर दिया। तीसरा मत यह भी है कि राजा केदार/केदारनाथ/केदारकायत को माता का यह वचन था कि जब तक वह राजी होकर माता को जाने के लिए नहीं कहेगा, तब तक देवी उसके राज्य में ही रहेगी। राजा मानसिंह की पूजा से प्रसन्न होकर देवी राजा केदार की पुत्री का रूप धर कर पूजा कक्ष में उसके पास बैठ गई। पूजा में विध्न नहीं पडे, इसलिए राजा ने उसे अपनी पुत्री समझ कर तीन बार कहा, जा बेटा यहां से चली जा मुझे पूजा करने दे। इस प्रकार माता ने राजा के मुंह से अपने पास से जाने की बात कहलवा दी। कहा जाता है कि जब राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने माता की प्रतिमा को समुद्र में फेंक दिया। बाद में राजा मानसिंह ने माता की प्रतिमा को शिला के रूप में समुन्द्र में से निकाल लिया। शिला के रूप में मिलने से देवी शिला माता के नाम से विख्यात हुई और आमेर महल में भव्य मंदिर बनाकर प्रतिस्थापित करवाया। शिलादेवी मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है। जहां माता के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता है कि माता के दर्शन तभी सफल माने जाते हैं, जब वह भैरव दर्शन करके नीचे उतरता है। कहा जाता है कि वध करने पर भैरव ने अन्तिम इच्छा में माता से वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के बाद मेरे दर्शन भी भक्त करें। माता ने उसे आशीर्वाद देकर उसकी इच्छा को पूर्ण किया था।
शिला माता ने अपना चेहरा क्यो फेर लिया राजा मानसिंह से
बताया जाता है कि जब राजा मानसिंह ने माता की प्रतिमा को शिला के रूप में समुन्द्र में से निकाल कर लाया था तो माता ने मानसिंह को सपने में दर्शन देते हुए कहा था कि अगर वह इस प्रतिमा को अपने साथ लेकर जायेगा तो रोज उसे एक नर बली देनी होगी क्योकि यह शिला माता काली माता का अंश मानी जाती है जब तो राजा ने माता कि सारी बाते मानकर माता की प्रतिमा को आमेर में स्थापित कर दिया और रोज एक नर बली दी जाने लगी और यह प्रथा कई वर्षो तक जी जाने लगी पर जब राजा को लगा की मेरी प्रजा को मेरे द्वारा मौत के मुँह में धकेला जा रहा है तो उसने नर बली के स्थान पर पशु बलि को माता की भेट चढाने लगा और उसी दिन से शिला माता ने अपना चेहरा राजा के सामने से फेर लिया और तब से अब तक इस मंदिर की प्रतिमा इसी तरह भक्तो से मुँह फेरे हुए है और कहा जाता है कि यह देवी की प्रतिमा शाक्षात देवी का एक रूप मानी जाती थी और यह प्रतिमा राजा मानसिंह से भी कहकर बात किया करती थी। तथा इसके मुख्य द्वार पर चाँदी से निर्मित गेट बने हुए है और इन गेटो पर नौ माताऔ और दस विधाऔ के चिन्ह अंकित किये गये है और मंदिर के कुछ दूर पहले भैरव नाथ का भी एक मंदिर निर्माण किया गया है। जहा भक्त माता के दर्शनों के बाद इस भैरव नाथ के दर्शन भी करते है कहाँ जाता है कि माता की यात्रा तभी पुरी मानी जाती है जब भैरव के दर्शन भी पूरे हो जाये ।
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